रिपोर्ट:- शंखनाद डेस्क
आर्थिक तंगी से जूझते पत्रकार!
शंखनाद डेक्स
पत्रकारिता को अगर आप धर्म और कर्तव्य मान कर कर रहे हैं तो यह निश्चित है कि आपको घोर आर्थिक तंगी का सामना करना पड़ सकता है.
अगर आप इसे बदलाव की जादुई छड़ी मानते हैं तो आप भूल में है. अगर यह बदलाव लाता तो दुनिया आज इतनी बीभत्स स्थिति में नहीं होती.
अगर आप इसे शक्ति का पुंज मानते हैं तो भी आप ग़लत हैं. यह शक्ति एकदम छद्म है जो कभी भी छिन सकती है और दूसरे ही पल आप सबसे कमजोर हो सकते हैं.
अगर आप इसे लोकप्रियता का जरिया मानते हैं तो यह तब तक ही है जब तक आप लोगों की नजरों के सामने हैं. जैसे ही आप ओझल होंगे, आपकी जगह कोई दूसरा ले लेगा. इसलिए यह भी एक क्षणिक खेल है.
मुझे याद है 2010 के आसपास पटना के हड़ताली मोड़ पर सत्ता को चैलेंज करने वाले पत्रकारों के बड़े-बड़े बैनर लगे होते थे, जो आज मुख्यधारा में नहीं है और एक पीटीसी के लिए आज भी जुगत में रहते हैं.
राष्ट्रीय मीडिया में कुछ ही चेहरे पिछले डेढ़ या दो दशक से स्क्रीन पर बने हुए हैं. पिछले 15-20 सालों में भारत माता ने एक भी टैलेंट पैदा नहीं किया जो इन्हें स्क्रीन से रिप्लेस कर सके.
दो-तीन साल पहले मेरे साथ पढ़ने वाला एक मित्र न्यूज 18 इंडिया के प्राइम टाइम स्लॉट में रिपोर्टिंग करता था. लोग उसे सेलिब्रिटी की तरह समझते थे. इस दौरान बुरे वक़्त ने दस्तक दी और उनके पिताजी को आईसीयू में भर्ती कराना पड़ा. डिस्चार्ज करने के वक़्त अस्पताल की फीस चुकाने में उसके पसीने छूट गए. अंत में उसने उस कथित चकाचौंध वाली रिपोर्टिंग छोड़ मैनेजेरियल काम में घुसने का फैसला किया और आज वो आर्थिक रूप से मजबूत है. अब वो हर विपरीत परिस्थितियों से लड़ने के लिए तैयार है.
पत्रकारिता तह जीवन पढ़ने-लिखने वाला काम है पर उसे पूरे सिस्टम ने आर्थिक रूप से पंगु बना कर रखा है. इसके शब्दों और बोली का कोई आर्थिक महत्व नहीं है. आज एक साधारण मैनेजमेंट कॉलेज से निकलने वाले छात्रों की शुरुआती सैलरी 35 से 40 हजार होती है लेकिन पत्रकारिता के छात्र आज भी 8 हजार से शुरुआत करते हैं. आपने एक बार एमबीए-आईएएस किया तो जीवनभर अच्छी खासी कमाई कर सकते हैं, पर पत्रकारिता के लिए आपको रोज पढ़ना होता है और आपकी उतनी ही कमाई होती है जिससे आप अपना सिर्फ पेट भर सके. हां, भौकाल जरूर टाइट रहता है, पर क्या उस भौकाल से आप अपने बेटे की लाखों की कॉलेज फीस भर सकते हैं? या फिर अपनी मां को लाखों रुपए खर्च वाले आईसीयू से बाहर ला सकते हैं?
एक बड़े मीडिया संस्थान के एक मैनेजर से बात हो रही थी. उनसे मैंने पूछा कि ज़िलों में स्ट्रिंगर्स को मानदेय के नाम पर 3 से 4 हजार ही क्यों देते हैं. उन्होंने कहा कि वो हमारे मीडिया ब्रांड का अपने निजी कामों के लिए इस्तेमाल भी तो करते हैं तो फिर ज्यादा पैसा क्यों देना. पत्रकार को इतना ही पैसा दिया जाना चाहिए जिससे वो जिंदा रह सके.
क्या आपने देखा है ईमानदारी से पत्रकारिता करने वाले पत्रकारों को BMW से घूमते हुए? नहीं देखा होगा… यही कारण है कि आज पत्रकार सत्ताधारियों के पक्षकार बन रहे हैं ।
दैनिक भास्कर में सहभागी रहे जयप्रकाश गुप्ता पंजवारा के साभार एक मित्र के फेसबुक से से.