तो यह खेला क्‍या है? अचानक से कोरोना कैसे बढ़ा? क्यों बढ़ा?

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शंकर दयाल मिश्रा के साथ पंकज कुमार ठाकुर!

बाकी कोविड सेंटर, क्वारंटाइन, आइसोलेशन के नाम पर भी खेला होबे।

कुछ शब्द फिर वापस लौट रहे हैं-
मास्क, सैनिटाइजर, कोविड सेंटर, क्वारंटाइन, आइसोलेशन, गिलोय, इम्युनिटी…!
मास्क-सैनिटाइजर, दवाई, विटामिन सी की गोली, इम्युनिटी बुस्टर का बचा स्टॉक तड़ाक से बिक जाएगा अब तो? पीके फिल्म में यही तो बताया गया था कि कुछ बेचना है तो डर पैदा कीजिए। बाकी कोविड सेंटर, क्वारंटाइन, आइसोलेशन के नाम पर भी खेला होबे।

तो यह खेला क्‍या है? अचानक से कोरोना कैसे बढ़ा? क्यों बढ़ा?
एक तर्क यह भी आया कि जांच बढ़ा दी गई है तो स्वभाविक है…। बीच में जांच कम हुई थी, केस कम हो गए…। लोग ढीले पड़ गए। तालाबंदी से बेपटरी हुई दुनिया फिर से पटरी पर लौटने लगी। लेकिन अभी फिर से कोरोना-कोरोना…। शुरू में लोगों ने उपेक्षा की पर अब खौफ इस कदर बढ़/बढ़ाया जा चुका है कि टेस्ट कराने वालों की स्वत: भीड़ बढ़ गई है। भागलपुर के जांच केंद्रों में मिल रही रिपोर्ट पर गौर करें तो किसी-किसी केंद्र पर 45 प्रतिशत तक लोग पॉजिटिव मिल रहे हैं। यानी कि कह सकते हैं कि इस बार पॉजिटिविटी रेट पिछले बार से काफी अधिक है। तो सवाल यह भी कि क्या पिछले वर्ष बिहार में चुनाव के कारण कोरोना बड़े स्तर पर यहां से छुट्टी लेकर कहीं चला गया था या डाटा मैनिपुलेट किया गया था।

वैक्सीनेशन के बावजूद अब जबकि कोरोना के खौफ को फिर से बड़ा किया जा रहा है, इसकी दूसरी लहर शुरू होने की बात कही जा रही है, मरीजों के प्रति डॉक्टरों की लापरवाही भी सामने आने लगी है। कल ही भागलपुर के सांसद प्रतिनिधि देबज्योति मुखर्जी ने मायागंज अस्पताल की कुव्यवस्था को उजागर किया था। उन्होंने एक सेवानिवृत्त सरकारी अधिकारी और उनकी पत्नी के कोरोना प्रभावित होने की जानकारी दी। कहा कि चार घंटे से अधिक समय तक दोनों बीमार बुजुर्ग दंपती खड़े रहे, कई जगहों से पैरवी कराई तब बेड मिला। आज उस अधिकारी की पत्नी की मौत हो गई। उनकी मौत कैसे हुई यह तो अधिकारी ही बता सकते हैं, प्रत्यक्षत: तो कहा जाएगा कोरोना के कारण मौत।

पिछले वर्ष जब कोरोना के खौफ को इसकी भयावहता से कई सौ गुणे अधिक कर दिया गया था तब मैंने इसे भोगा था। उस वक्त अपने कई आलेखों में उस अनुभव को लिखा था। लाइव रिपोर्टिंग की थी कोविड सेंटर से। डॉक्टर मरीज को देखने नहीं आते… मरीजों को एक कमरे में कैद कर दिया जाता था…। छोड़ दिया जाता है उन्हें उनकी हाल पर…। मायागंज से तब जो जिंदा लौटा वह उसका भाग्य न कि इलाज…!
मेरा तब स्पष्ट मत बना था कि कोरोना संक्रमण से मृत घोषित किसी भी व्यक्ति का पोस्टमार्टम करा दिया जाए तो पता चल जाएगा कि कोरोना से कम उचित देखभाल और दवाई के अभाव में अन्य बीमारियों से कोरोना संक्रमित मर रहे हैं। आज भी मेरा मत यही है, लेकिन कोरोना संक्रमण के साथ मरने वालों का सरकारी प्रोटोकॉल पोस्टमार्टम की इजाजत ही नहीं देता।

दूसरी ओर, इस दफे महानगरों और बड़े शहरों से आने वाली रिपोर्ट तो वाकई डराने वाली है। जो हो बात चिंता की तो है ही। हालांकि मृत्युदर कम है। अभी बहुत कम। एडजेक्ट आंकड़ा अभी निकाल नहीं पाया। लेकिन, जिस किसी के घर का कोई मरता है उसके घर-परिवार पर क्या बीतता है यह वही समझ सकता है जिसका कोई अपना मरा हो। उसके लिए किसी अपने का जाना एक आंकड़ा नहीं उसके लिए पूर्ति नहीं की जा सकने वाली क्षति है। अगर कोई युवा या प्रौढ़ चला गया तो अगले तीन दशक तक वह परिवार अपने पुरानी स्थिति में आने के लिए संघर्ष करता है। ऐसा देखा है मैंने।

खैर, तर्क-प्रतितर्क के बीच में फँसा हूँ। मेरे जैसे कई और लोग द्वंद्व में जी रहे होंगे कि कोरोना से डरना है या नहीं, डरना है तो कितना डरना है…! परिवार की समाज की चिंता कहती है कि सतर्कता तो बरतनी ही है। हालांकि यहां फिर प्रतितर्क आ जाता है कि क्या दो जून की रोटी के लिए संघर्ष करने वाले हम मध्यमवर्गीय या गरीब लोग अमिताभ बच्चन और अक्षय कुमार से अधिक सतर्कता बरत सकते हैं?

दो जून की रोटी से ध्यान आया। अब तो स्थिति यह आ गई कि कमाएंगे तो खाएंगे। और कमाएंगे कैसे? बाहर कोरोना के नाम पर हमें खाने के लिए कई लोग बैठे हैं। कभी धंधा बंद करने के नाम पर वसूली, कहीं मास्क नहीं पहनने के नाम पर वसूली…! दो गज दूरी मास्क है जरूरी… यह कैफियत इतनी बार सुना जा चुका है कि लोग शायद ही ताउम्र भूलें। हालांकि मास्क से कोरोना नहीं होगा, इससे संबंधित कोई शोध रिपोर्ट आज तक हमारे समाने से नहीं गुजरी, जबकि कई जानकारों ने बताया कि मास्क में जितने माइक्रोन का छिद्र होता है कोरोना तो उससे भी सौ गुणा कम का होता है।

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