जस्ट_इमेजिन ✍️शंकर दयाल मिश्रा

भागलपुर (बिहार) में मेरे दफ्तर का रास्ता बरारी श्मशान घाट रोड होकर जाता है। कोरोना के दौर में रोज जाना हुआ। इसी साल तब दो दिन तो लाशों की लाइन इतनी लंबी थी कि दाह संस्कार में आए लोग हमारे दफ्तर के मोड़ तक खड़े थे। अभी भी रोज दफ्तर जाता हूँ। शमशान रोड से दफ्तर की ओर मुड़ते ही अचानक दिमाग में आया- श्मशान घाट रोड में घर होने का अपना मजा-फायदा-रोमांच है। जीवन का फाइनल डेस्टिनेशन इतना करीब फिर भी पहुंचते-पहुंचते उम्र गुजर जाएगी!

सोचने लगा मेरा भी घर यही होता तो…! एक तो शव/शवयात्रा देखना डरायेगा नहीं। रोज दर्जनों बार “राम नाम सत्य है…” घोष सुनना दिनचर्या में शामिल हो चुका होगा। इस कदर कि शव को देखकर प्रणाम करने की आदत तक छूट जाएगी। कोई मरा तो इस शाश्वत सच को पूरा परिवार सहजता से स्वीकार कर लेगा।
दूसरे कभी मरना तो है ही… तब अंतिम यात्रा में बाल-बच्चों को भी कम परेशानी। बगले में जाना जो है… जराने! मेरा कभी सहकर्मी रहा बरारी का विनोद गर्व से कहता भी था- हमरा सब क की$… जीते बरारी मरते बरारी…!
अभी प्रोफेशनल जमाना है। ऑफिस के साथियों को घाट तक जाने का समय होगा नहीं। बाकी सोशल साइट्स…! दूर-दराज के अपरिचित लोग अपने लगते हैं और रिश्ते-नाते, पड़ोसी-समाज में इतनी दूरी बढ़ रही कि फेसबुक पर भी हाय-हेलो/लाइक-कमेंट्स सामने वाले का स्टेटस देखकर। बैल-कुत्ता वाली बात…! बाकी जमीन पर पहचान का बड़ा संकट! हालांकि मुझे लगता है कि मेरे व्यवहार-विचार-परिवार से मेरे लिए चार कंधे से अधिक जरूर जुटेंगे, लेकिन अगर चार कंधों के जुगाड़ लायक आदमी न रह सका तो भी बाल-बच्चे बहुत परेशान नहीं होंगे…! दफ्तर में कभी श्मशान घाट को लेकर बात होती है तो हॅंसी-हँसी में कहता हूँ कि यहां कोई मरा तो टेंशन नहीं है। सौ-दो सौ मीटर तो मुर्दे को भी पीठ ठोककर दौड़ा देंगे। यहां से घाट की दूरी कम ही है। मने कि चार कंधे नहीं जुटे तो भी पीठ ठोककर घाट पहुँचा ही दिए जायेंगे।
घाट पहुँच गए… मतलब अंत भला। और, अंत भला तो सब भला, कहीं नहीं रहेगी कोई बला।