रचना – अनमोल कुमार
कभी फुर्सत मिले,
तो उन रास्तों पर लौटना,
जहाँ-जहाँ तुम्हारे कदम पड़े थे।
उन शहरों को देखना,
जिन्हें तुमने कभी अपना माना था।
उन दफ्तरों की ओर जाना,
जहाँ कभी तुम्हारा नेमप्लेट लगा था।
उन चौखटों को छूना,
जिनके भीतर कभी तुम्हारी दुनिया बसती थी।
तब देखोगे—
तुम्हारी कुर्सी पर कोई और बैठा होगा,
तुम्हारे कमरे में किसी और की फाइलें होंगी,
तुम्हारे क्वार्टर की खिड़की से
कोई और निहार रहा होगा।
जिन गलियों में तुम्हारी हुकूमत थी,
वहाँ अब कोई तुम्हें पहचानने वाला भी न होगा।
समय की यही चाल है,
जो आज तुम्हारा है,
कल किसी और का होगा।
पचास बरस बाद,
अगर तुम लौटकर यहाँ आओ,
तो शायद दरवाज़े पर खड़े बच्चे से
अपना नाम पूछो,
और वह अनजान निगाहों से
‘कौन?’ कहकर दरवाज़ा बंद कर लें।
यही हक़ीक़त है,
यही दुनिया का दस्तूर।