रिपोर्ट- अमित कुमार
CITIZENS COUNCIL-नागरिक परिषद् बिहार: एक नागरिक पहल
बिहार की आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक स्थिति पर एक दृष्टिकोण
बिहार की आबादी अब तेरह करोड़ के पार हो चुकी है, लेकिन आर्थिक, शैक्षिक, और सामाजिक दृष्टि से यह राज्य अब भी गंभीर चुनौतियों का सामना कर रहा है। शिक्षा प्रणाली रुक-रुक कर चल रही है, सालाना आय सबसे निचले स्तर पर है, नौकरशाही गैर-जिम्मेदार और भ्रष्ट हो चुकी है। इन सबके परिणामस्वरूप, बिहार देश में सबसे अधिक गरीबों की आबादी वाला राज्य बन गया है, और यह सभी राज्यों में सबसे पिछड़ा हुआ है। इस स्थिति के पीछे क्या कारण हो सकते हैं?
चुनाव के साथ प्रजातंत्र आता है, लेकिन यह केवल ईवीएम पर बटन दबाने तक ही सीमित रह जाता है। जनप्रतिनिधि अपने चुने जाने के बाद पुराने ढर्रे पर लौट आते हैं, और अफसरशाही आम जनता पर अपनी पकड़ मजबूत रखती है। मुख्यमंत्री और उनके कुछ सहयोगी मनमानी तरीके से शासन करते हैं, और बहुमत प्राप्त पार्टी का नेता मुख्यमंत्री बन जाता है। इस प्रक्रिया में, पार्टी संविधान से भी अधिक महत्वपूर्ण हो जाती है।
बिहार की राजनीतिक व्यवस्था में एक और गंभीर समस्या यह है कि सत्ता पर काबिज नेता पार्टी का प्रतिनिधित्व करते हैं, लेकिन यह प्रतिनिधित्व संपूर्ण पार्टी का नहीं होता, बल्कि नेतृत्वकर्ता के इर्द-गिर्द सीमित रहता है। यह नेतृत्व कुछ जातियों और उनके नेताओं के नियंत्रण में होता है, और उनके परिवारों का इसमें प्रभुत्व होता है। इससे विधायिका में असंतुलित प्रतिनिधित्व का दुष्प्रभाव सामने आता है।
बिहार की विधानसभा और संसद में जातियों और धनिक दबंगों का बोलबाला है, लेकिन कई बड़ी आबादी वाली जातियों का प्रतिनिधित्व नगण्य है। उदाहरण के लिए, मुस्लिम बुनकर समुदाय (जुलाहे अंसारी) जिसकी आबादी बिहार में 10% है, उनका एक भी प्रतिनिधि विधानसभा या संसद में नहीं है। 80% पिछड़ी और अतिपिछड़ी जातियों का विधायिका में प्रतिनिधित्व शून्य के बराबर है।
अधिकांश प्रतिनिधित्व उन्हीं जातियों के दबंगों या नेताओं के वफादारों का होता है, जो प्रभावकारी पदों पर बने रहते हैं। राजनीतिक दलों का इतना महत्वपूर्ण स्थान होने के बावजूद, भारतीय संविधान में इन दलों के प्रबंधन का कोई स्पष्ट प्रावधान नहीं है। चुनाव आयोग के पास भी बहुत सीमित अधिकार हैं, जिससे राजनीतिक पार्टियों में व्याप्त विसंगतियों को नियंत्रित करना संभव नहीं हो पाता।
इस स्थिति से यह स्पष्ट होता है कि बिहार का राजनीतिक प्रबंधन पिछले चार से पांच दशकों से कुशासन और कुप्रबंधन का शिकार बना हुआ है। नागरिक परिषद् बिहार इस पूरी प्रणाली की समीक्षा करने और सुधार के लिए आवाज उठाने का एक नागरिक प्रयास है।