सौजन्य:- पीआईबी
भारत विश्व का महानतम कार्यशील लोकतंत्र है। ऐसा न केवल इसके विशाल आकार अपितु इसके बहुलतावादी स्वरूप और समय की कसौटी पर खरे उतरने के कारण है। लोकतांत्रिक परंपराएं और सिद्धांत भारतीय सभ्यता की विरासत के अभिन्न अंग रहे हैं। हमारे समाज में समता, सहिष्णुता, शांतिपूर्ण सहअस्तित्व और लोकतांत्रिक मूल्यों पर आधारित जीवन शैली जैसे गुण सदियों से विद्यमान रहे हैं। वास्तव में लोकतंत्र की जड़ें हमारी राजनीतिक चेतना में बहुत गहराई तक समाई हुई हैं। इसलिए हमारे देश में विभिन्न कालखंडों में चाहे कोई भी शासन व्यवस्था रही हो, लेकिन आत्मा लोकतंत्र की ही रही।
विदेशी दासता से हमारी मुक्ति का संघर्ष सत्य, अहिंसा और व्यापक जन भागीदारी पर आधारित था। अनगिनत स्वतंत्रता सेनानियों ने आजाद और समृद्ध भारत का सपना देखा था; सामाजिक, आर्थिक न्याय पर आधारित समतामूलक समाज के निर्माण का सपना देखा था। इसके लिए कष्ट सहे और बलिदान दिया। एक लंबे संघर्ष के बाद हमें आजादी मिली। दुनिया के अनेक देशों ने आजादी पाई, परंतु भारत की आजादी दुनिया भर में मिसाल बनी।
स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद जब देश की आजादी के नायकों और हमारे मनीषियों ने देश के लिए संविधान की रचना की, तब हमारे संविधान में स्वतंत्रता, समानता, बंधुता और न्याय के आधारभूत मूल्यों को सहज ही शामिल कर लिया गया। स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात भारत जैसे विशाल एवं विविधतापूर्ण देश के लिए यह एक बड़ी चुनौती थी कि लोकतांत्रिक व्यवस्था को कायम रखते हुए किस प्रकार अपने देशवासियों के सामाजिक-आर्थिक जीवन में समृद्धि लाई जा सके। संविधान निर्माण के समय हमारे संविधान निर्माताओं के समक्ष तीन मुख्य उद्देश्य थे – राष्ट्र की एकता और स्थिरता को सुरक्षित रखना, व्यक्तियों की निजी स्वतंत्रता और कानून के शासन को सुनिश्चित करना तथा ऐसी संस्थाओं के विकास के लिए जमीन तैयार करना जो आर्थिक और सामाजिक समानता के दायरे को व्यापकतर बनाए। हमारे संविधान निर्माताओं ने अपने अनुभव, ज्ञान, अपनी सोच तथा देश की जनता से जुड़ाव के चलते न केवल इन लक्ष्यों को सिद्ध किया बल्कि हमें एक ऐसा संविधान दिया जो अपने समय का सबसे प्रगतिशील एवं विकास उन्मुखी संविधान है।
हमारा देश विशाल एवं विविधतापूर्ण देश है। यह तेजी से संक्रमणकाल से गुजर रहा है। देश के समक्ष नई-नई चुनौतियां हैं। परंतु हमारा संविधान हमें इन चुनौतियों से निपटने की शक्ति देता है। साथ ही, इसमें देश की जनता की आशाओं और आकांक्षाओं को पूरा करने का भी पर्याप्त सामर्थ्य है। यही कारण है कि यह संविधान आज भी हमारा सबसे बड़ा मार्गदर्शक है। यह देश में न सिर्फ कानून का शासन स्थापित करता है बल्कि यह केंद्र और राज्य सहित देश की सभी लोकतांत्रिक संस्थाओं को प्रदत्त शक्तियों का स्रोत भी है। भारत के संसदीय लोकतंत्र की सफलता भारत के संविधान की सुदृढ़ संरचना और इसके द्वारा विहित संस्थागत ढांचे पर आधारित है। 26 नवम्बर का दिन हमारे लिए इसलिए महत्वपूर्ण है कि वर्ष 1949 में इसी दिन हमारे देश की संविधान सभा ने 90 हजार शब्दों से तैयार किए गए संविधान को अपनाया था।
संविधान की प्रारूप समिति के अध्यक्ष डॉ. अम्बेडकर की 125वीं जयंती के मौके पर वर्ष 2015 में केन्द्र सरकार ने घोषणा की थी कि 26 नवम्बर का दिन संविधान दिवस के रूप में मनाया जाए।
भारत के संविधान की सर्वाधिक उल्लेखनीय विशेषता यह है कि इसका विचारदर्शन चिरस्थायी है, लेकिन इसका खाका लचीला है। हमारा संविधान केवल अमूर्त आदर्श नहीं है, बल्कि यह एक सजीव दस्तावेज है। भारतीय संविधान के बल पर हम राजनीतिक लोकतंत्र के साथ-साथ सामाजिक और आर्थिक लोकतंत्र की स्थापना कर पाए हैं। भारतीय संविधान सामाजिक और आर्थिक परिवर्तन लाने में सबसे मजबूत साधन सिद्ध हुआ है। हमारा संविधान समय के साथ-साथ नई आशाओं, आकांक्षाओं और परिस्थितियों पर खरा उतरता रहा है और वस्तुत: यह निरंतर विकसित हो रहा है ।
पिछले 72 वर्षों में हमारा लोकतांत्रिक अनुभव सकारात्मक रहा है। सात दशकों की अपनी यात्रा में हमें अत्यंत गौरव के साथ पीछे मुड़ कर देखना चाहिए कि हमारे देश ने, न केवल अपने लोकतांत्रिक संविधान का पालन किया है, बल्कि इस दस्तावेज में नए प्राण फूंकने और लोकतांत्रिक चरित्र को मजबूत करने में भी अत्यधिक प्रगति की है। हमने ‘जन’ को अपने ‘जनतंत्र’ के केंद्र में रखा है और हमारा देश न केवल सबसे बड़े जनतंत्र के रूप में, बल्कि एक ऐसे देश के रूप में उभर कर सामने आया है, जो निरंतर पल्लवित होने वाली संसदीय प्रणाली के साथ जीवंत और बहुलतावादी संस्कृति का उज्ज्वल प्रतीक है। हमने संविधान की प्रस्तावना के अनुरूप एक समावेशी और विकसित भारत के निर्माण के लिए न केवल अपनी नीतियों एवं कार्यक्रमों को साकार करने पर ध्यान केंद्रित किया है, बल्कि हम शासन-प्रणाली में भी रूपांतरण कर रहे हैं। यह वास्तव में एक आदर्श परिवर्तन है, जिसमें लोग अब निष्क्रिय और मूकदर्शक या ‘लाभार्थी’ नहीं रह गए हैं, बल्कि परिवर्तन लाने वाले सक्रिय अभिकर्ता हैं।
भारतीय लोकतंत्र की विकास-यात्रा में अब तक सत्रह आम चुनावों और राज्यों की विधानसभाओं के लिए भी कई सफल चुनावों का आयोजन किया जा चुका है। प्रत्येक चुनाव से भारतीय लोकतंत्र समृद्ध हुआ है। एक राजनीतिक दल से दूसरे राजनीतिक दल को सत्ता का निर्बाध हस्तातंरण हमारी लोकतांत्रिक प्रणाली की सफलता को स्पष्ट रूप से दर्शाता है ।
हमारा संविधान हमारे राष्ट्र निर्माण की प्रक्रिया को दिशा प्रदान करता है। परंतु विकास के स्वरूप और उसकी गति को निर्धारित करना हमारा काम है। हमारी प्रमुख निष्ठा हमारे संविधान के मूल्यों तथा हमारे सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक विकास के फायदों को समाज के निचले पायदान पर ले जाने की होनी चाहिए। इसके लिए हमें संविधान प्रदत्त अधिकारों के साथ-साथ अपने दायित्वों के निर्वहन के महत्व को भी समझना होगा। हमारे संविधान में नागरिकों के अधिकारों और कर्तव्यों का अद्भुत संतुलन है। आजादी के 75 वर्षों में अब वह समय आ गया है कि राष्ट्रहित में नागरिक कर्तव्यों को समान महत्व दिया जाए। यदि हम राष्ट्रीय उद्देश्यों और संवैधानिक मूल्यों के प्रति अपने कर्तव्यों का पालन पूरी निष्ठा एवं प्रतिबद्धता के साथ करेंगे तो हमारा देश विकास पथ पर तीव्र गति से अग्रसर होगा तथा हमारा लोकतंत्र और अधिक समृद्ध एवं परिपक्व बनेगा।
आज हम आजादी का अमृत महोत्सव मना रहे हैं। हम एक प्रमुख विश्व अर्थव्यवस्था के रूप में निरंतर विकास कर रहे हैं। परंतु हमारे विकास की धारा एकध्रुवीय न होकर सर्वसमावेशी और समतावादी है। ऐसा इसलिए संभव हो सका है कि क्योंकि हमारा संविधान हमें ऐसी राह दिखाता है और यह सुनिश्चित करता है कि विकास यात्रा में समाज का कोई भी हिस्सा पीछे न रह जाए। हमारी लोकतांत्रिक प्रणाली स्थानीय स्वशासन तथा पंचायती राज जैसी संस्थाओं के माध्यम से महिलाओं तथा समाज के कमजोर वर्गों की सामाजिक आर्थिक प्रगति में भागीदारी पर बल देती है।
संविधान वह मूलभूत विधि है जिस पर उस देश के अन्य सभी कानून आधारित होते हैं। यह एक पवित्र दस्तावेज है और सभी को इसके आदर्शों के प्रति पूरी तरह निष्ठावान होना चाहिए। संविधान के अंतर्गत राष्ट्र के सभी अंगों को उन लोगों की आशाओं और आकांक्षाओं के प्रति संवेदनशील होने का अधिदेश सौंपा गया है जिनके हितों की रक्षा के लिए वे बनाए गए हैं। हमारी संसदीय प्रणाली के सुचारू संचालन के लिए लोकतंत्र की तीनों शाखाओं न्यायपालिका, विधायिका और कार्यपालिका को अपनी स्वतंत्रता के प्रति जागरूक रहते हुए आपसी समन्वय से कार्य करना चाहिए।