शंकर दयाल मिश्रा के साथ पंकज कुमार ठाकुर!
2020 में कोरोना आया। अभी फिर कोरोना-कोरोना चल रहा है
क्या इस मौसम में लोग बीमार नहीं पड़ते थे? बदलते मौसम का ही असर होता था। तकरीबन हर घर में एक-दो लोग सर्दी-खांसी-बुखार से पीड़ित होते थे। याद कीजिये, घरवाले चुहल में या सीरियसली अपने बीमार व्यक्ति कहते थे दूर रहो… मुझे भी बीमारी दोगे क्या…! मौसम में बदलाव के कारण बीमार पड़ने वाले लोगों का आंकड़ा तब भी कुल आबादी का एक-डेढ़ प्रतिशत रहता होगा। ( एडजेक्ट डाटा मिल नहीं पाया)
आप कहेंगे, तब मरते कहाँ थे लोग?
मरते थे… पर कम लोग मरते थे। तब लोगों को इलाज मिल जाता था।
लेकिन अभी…! मरने की खबरें तो सरकारी अस्पतालों से ही आ रही है। क्यों…?
भागलपुर जैसे शहरों की बात करें। डॉक्टर-नर्स इस कथित महामारी के कथित डर से बीमार को देख ही नहीं रहे। गौर करने वाली बात यह है कि आबादी की एक-डेढ़ प्रतिशत के करीब लोग इसकी चपेट में आये हैं। इसमें से करीब एक प्रतिशत को हॉस्पिटल लाना पड़ता है। कोरोनकाल से पहले यह दर थोड़ा और कम होगा। लेकिन कोरोनाकाल मैं भी यह दर इतना नहीं बढ़ा कि इसे महामारी कह दिया जाए। लेकिन यह महामारी के रूप में घोषित है और महामारी की बात हमारे दिमाग की गहराइयों में घुस चुकी है। इसका नतीजा है कि पिछले साल जब कोरोना का दहशत फैला तो कोई डॉक्टर मरीज को ही नहीं देखने लगा। स्वभाविक है की मौत का आंकड़ा बढ़ा। कोरोना के नाम पर दूसरी बीमारी से ग्रसित लोग अधिक मरे।
अब फिर से कोरोना का दहशत बड़ा किया जा रहा है। अच्छी बात है कि पिछली बार की तरह डॉक्टरों ने क्लीनिक नहीं बंद किया है। लेकिन सरकारी अस्पतालों, जहां कोरोना के मरीज को भर्ती किया जाना है वहां पदस्थापित काहिलों/आलसियों/कामचोरों के लिये तो फिर अवसर मिला है। इसी बहाने काम नहीं करने का। कोरोना मरीज को उनके हाल पर छोड़ दिया जा रहा। नतीजा, मरीज को जब ऑक्सीजन चाहिए तब ऑक्सीजन नहीं मिल रहा है। जब दवा चाहिए तब दवा नहीं मिल रही। डॉक्टर अपने क्लीनिक में व्यस्त हैं और नर्सें अपने कक्ष में बैठकर गप्पे लड़ाने में। अव्यवस्था और जिम्मेदारों की काहिली के कारण बीमार मर रहे हैं। ऐसा अखबारों के रिपोर्ट भी कहते हैं। जिनका कोई मरा वह चीख-चीखकर कहता है।
कुल मिलाकर कहें तो डॉक्टरों और नर्सों का काउंसिलिंग किए जाने की जरूरत है। उन्हें उनके दायित्व के प्रति प्रेरित करने की जरूरत है। जो प्रेरित ना हो उन्हें निकाल बाहर करने की जरूरत है। सामाजिक बहिष्कार करने की जरूरत है। ऐसा मैं सभी डॉक्टर और नर्स के बारे में नहीं कहता। कुमार गौरव, नीरव, अनु, राकेश रोशन जैसे डॉक्टर भी हैं जिन्हें मैंने इस दौर में भी मरीजों के लिए तत्पर देखा है। मायागंज में अधिकतर जूनियर डॉक्टरों को भी अपने काम में लगे देखा है।
कोरोना है, पर यह एक बीमारी है। इसे महामारी के रूप में हमारे दिमाग में सेट कर दिया गया है। ऐसा कि इतना समझने के बाद भी मेरे नजदीक कोई छींक-खांस दे स्वाभाविक क्रिया के तहत अंदर से डर ही जाता हूँ। फिर दिमाग को तर्क से सेट कर इससे लड़ाई लड़नी पड़ती है और तब भय से बाहर निकल पाता हूँ।