रिपोर्ट -अनमोल कुमार
पटना।सलीलता को लीलता अश्लीलता की बागडोर थामे मौजूदा भोजपुरी जमात को तो कुछ कहने की जरूरत ही नहीं, पुतवा भातरा हो रहा है उस टोला में, सस्ती लोकप्रियता और हिंदी फिल्मों से तुलना ने ये हाल कर दिया है…
सच तो यही है कि सबसे सुघर बोली भोजपुरी संगीत का और गंगा मईया तोहे पियरी चढ़ईबो की परिपाटी का लीपापोती….
भोजपुरी में ही ये दक्षता है कि एक शब्द कई तरह से संबोधन हो सकता है, रउआ, तोहरा, तोहके, रउवा के…
एक शब्द को कई उपमा और अलंकार से बोल सकते हैं, जैसे चल, च… ल, चलs, (प्यार से, दुलार से,डांटकर, धीरे से, चिल्लाकर या फिर जीभ को दबाकर स्नेहिल या रोमांचित होकर ) अनगिनत रूप है भोजपुरी संवाद का।
भोजपुरी में सुबह,सांझ, भोर के गीत, बारह महीने के लिए बारह मासा का चलन है, होली में रोपनी का गीत नही गा सकते, परंपरा के सभी गीत शगुन,निर्गुण से लेकर जाता पिसने के जंतसर से लेकर विवाह के अवसर में सलिल गाली देने की रीति रिवाज को जालसाज क्या समझेंगे।
हम भोजपुरी के प्रबल समर्थक,सहभागी उत्कृष्ट सिरमौर व्यास भरत शर्मा जी, निर्गुण गायिकी के पहचान मदन राय जी, सुमधुर स्वर के थाती विष्णु ओझा,सलिल गायक भाई गोपाल राय जी के अलावा अनगिनत भोजपुरी के साधकों का साथ देने में गुमान महसूसते हैं, लोक विधा के धरोहर गायत्री व्यास, धुरान, मुन्ना सिंह एवं नथुनी सिंह के दौर को भी बेहद करीब से देखने का अवसर मिला…
आज जरूर व्यथित हूं, सोचता हूं कि भोजपुरी की गिरती संस्कृति पर कुठाराघात करने वालों का मनोबल इतना ऊंचा कैसे हुआ, हम लोगों ने ही तो तथाकथित स्टार बना डाला है, इनका भी दोष शायद नहीं गायक से नायक बनाने की परंपरा भी दोषी है, अब जाति पात से ऊपर उठकर अपनी भोजपुरी के लिए कुछ पहल करने की जरूरत है, सरकारें तो केवल सरकाने में लगी हैं।
जनता को जागरूक होने की दरकार है।